भाग्य व पुरुषार्थ

ज्योतिष की आधारभूत संकल्पना भाग्य व पुरुषार्थ के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध पर आर्ष ज्ञान के आलोक में विकसित हुई है। प्राय: यह पुराना विवाद रहा है,कि भाग्य व कर्म में प्रमुख कौन है ? क्या मानव पूर्णरूपेण स्वतन्त्र है या निश्चित दायरे में बँधा है ? क्या कारणवाद का नियम कि हर कार्य का कोई कारण है और निर्धारणवाद का नियम कि हर घटना पूर्व निर्धारित है,जैसे नियम युक्तियुक्त हैं? हम देखते हैं कि ये सामान्य नियम है कि जो कार्य किसी ने किया है, वह उसका ‘उत्तरदायी है, अतः उसका मूल्यांकन होना चाहिए।लेकिन मूल्यांकन तभी होगा जब कार्य उसकी इच्छा से हुआ है अर्थात् कार्य करने की / संकल्प की स्वतन्त्रता हो। जैसे मांसाहारी पशुओं के पास अहिंसा चुनने की स्वतन्त्रता नहीं होती, इसलिए उनका उनके कृतकार्य के लिए मूल्यांकन नहीं होता फलतः वे दण्ड पुरस्कार के भागी नहीं होते हैं । वहीं निर्धारणवाद में यह माना जाता है कि सब कुछ नियमबद्ध है, इसको मानने वाले मानते हैं कि मनुष्य बँधा है सामाजिक / सांस्कृतिक नियमों से, अर्थात् कार्य को चुनने की आजादी उसके पास नहीं, इसलिए वह अपने कार्य के प्रति उत्तरदायी नहीं, फलतः दण्ड/ पुरस्कार नहीं। अर्थात् निर्धारणवाद में न्याय का नियम भंग होगा। यह एक अत्यन्त दुष्कर विधा है।
इस विषय में श्रीमद्भगवद्‌गीता के अनुसार –

“प्रकृते: क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहङ्कार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥”

इसी विषय में निम्नश्लोक भी है-

“यदहङ्‌कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे। मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥”

अर्थात् प्रकृति कर्म बाध्यता प्रकट करती है, जो पूर्वकृतकार्य भाग्य की श्रेष्ठता को दर्शाता है।

वहीं भगवद्गीता में ही भगवान् कर्म करने की प्रेरणा देते हैं। 

“न हि कश्चित क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत | कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणैः ॥

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।  शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध येदकर्मणः ॥”

अर्थात् कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठतर है, क्योंकि बिना कर्म के शरीर यात्रा सम्भव नहीं।


इस प्रकार गीता में भी उभयात्मक चर्चा है।

ऐसे ही अधिकांश धर्मों में ईश्वर के बारे में सामान्य मत है,कि वे सर्वज्ञ, परमन्यायी,परमदयालु आदि अनेक सद्गुणों से युक्त है। फलत: ईश्वर सदैव प्राणी का शुभ चाहेगा। ऐसे में संकट यह है कि ईश्वर प्राणी को अशुभ कार्य करने ही क्यों देता है। यदि वह सर्वज्ञ है तो प्राणी के बुरे कर्म का पहले से उसे ज्ञान है।जब रोक नहीं पा रहा तो ईश्वर सर्वशक्ति नियन्ता भी नहीं। ऐसे जटिल शंका व दुविधाओं का हर एक समाधान सनातन वैदिक धर्म के वाङ्‌मय वेद,उपनिषद् ,गीता आदि अपौरुषेय ग्रन्थों में है। जैसा कि ईश उपनिषद् के प्रारम्भ में ही इसका संकेत किया गया है। जहाँ अद्वैत वेदान्त में ब्रह्म को निर्गुण बताकर ईश्वर के सामान्य विचार के द्वंद्व को समाप्त किया गया है।

“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:”का प्रतिपादन किया गया है। वहीं भगवद्गीता का कर्म नियम,कि हर कार्य का कर्ता उस कार्य के प्रतिफल को भोगता है,अकाट्य एवं तमाम द्वन्द्वों को जड़ से समाप्त करता है। अर्थात् सम्पूर्ण जगत प्रमुखतः दो नियमों से बंँधा है-

(1)  जगत का कारण ब्रह्म निर्गुण रूप से केवल निरपेक्ष द्रष्टा है।वह प्राणी के कार्य का न तो प्रेरक है न निषेधक।
(2) मनुष्य व सारा जगत इस नियम से बंँधा है कि प्रत्येक प्राणी की वर्तमान स्थिति उसके कृत कर्म के कारण है।चाहे वे कर्म पहले किये गये हैं या बाद में ।यही बात पुराणों में कहीं गयी है ‘अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतं कर्म शुभाशुभम्।’

ज्योतिष शास्त्र इसी मूल सिद्धांत के आधारपर लोकोपयोगी है कि वह अनिवार्यत: इसका ज्ञान कराता है कि मानव के पूर्वकृत कार्य का फल कैसा रहेगा, कब मिलेगा।मानव की उस पूर्व कृत कार्य के कारण स्वभावत: उन्मुखता किन विषयों/कार्यों/वस्तुओं/ विचारों के प्रति होगी। और इन्हें जानकर कैसे मानव को अपने कार्यों में परिवर्तन करना चाहिए,जो उसके वर्तमान जीवन को सुगम बनाये। लेकिन ज्योतिष कभी कर्म का प्रतिरोध नहीं करता।एक दैवज्ञ सदैव मानव को वर्तमान में कर्म करते रहने की प्रेरणा देता है और यदि पूर्व कार्यफल उसमें बाधक है तो वह शास्त्रीय समाधान भी देता है। ज्योतिष की उपयोगिता व प्रयोग सम्पूर्ण विश्व में किसी न किसी रूप में व्याप्त है परन्तु भारतीय ज्योतिष शास्त्र सबसे भिन्न है। अन्य देशों के ज्योतिषी मात्र शुभ/अशुभ का निर्देश भर देते हैं जबकि भारतीय ज्योतिष समाधान भी देता है। निष्कर्षत: भाग्य व कर्म में श्रेणीक्रम नहीं,पूरकता का सम्बन्ध है,परस्पर आश्रितता व स्वरुपगत अभेद है।

उक्त इन दो नियमों को और विश्लेषित किया जाए तो यह तात्पर्य निकलता है कि जो भाग्य व कर्म का द्वन्द्व व विवाद है, वह भ्रमात्मक व साधारण अज्ञानमूलक है। वस्तुतः कर्म का ही स्वरूप परिवर्तन भाग्य है और भाग्य का रूप परिवर्तन पूर्वनिर्धारित कर्म / स्वभाव रुप में दृष्टिगोचर है।

अत: प्राणी को गीता के मूल उपदेश-

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।”

इसी प्रकार ईश उपनिषद के मूल उपदेश –

“कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत शतं समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।”

को आधार बनाकर वर्तमान पर कार्य करना चाहिए, जो भविष्य को सुगम बनाये। इसके मार्गदर्शक रुप में ज्योतिष की महत्ता अतुलनीय है।
इस विषय में यदि हम ध्यान से देखें तो गीता में सारे पक्षों का विवेचन भगवान के श्रीमुख से किया गया है। सम्पूर्ण उपदेश सुनने के बाद अर्जुन को न तो वैराग्य की प्राप्ति हुई,न कोई मोह-शोक हुआ अपितु अर्जुन ने घोर संग्राम किया विजय श्री एवं यश प्राप्त किया । अन्तिम समाधान यह है कि भगवान के उपदेश “मामनुस्मरयुद्धय च” का आश्रय लेकर सम्पूर्ण कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर निर्धारित कर्तव्य को ध्यान में रखकर निष्काम कर्म में रत रहना चाहिए।

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