भाग्य व पुरुषार्थ
ज्योतिष की आधारभूत संकल्पना भाग्य व पुरुषार्थ के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध पर आर्ष ज्ञान के आलोक में विकसित हुई है। प्राय: यह पुराना विवाद रहा है,कि भाग्य व कर्म में प्रमुख कौन है ?
भारतीय संस्कृत वाङ्मय को मुख्यतः दो भागों में विभक्त किया गया है- आगम और निगम । निगम में वेद, उपनिषद, पुराण, स्मृति,वेदाङ्ग प्रभृति अनेक शास्त्र आते हैं, वहीं आगमशास्त्र में शिव व शक्ति के परस्पर वार्तालाप रूप में चौसठ तंत्रादि एवं अप्रकट साधना परम्परा का विशाल क्षेत्र है। जिसे जनसामान्य ‘तंत्र’ शब्द से सम्बोधित करता है।
जहांँ ज्योतिष ‘निगम में वेदाङ्ग है’ वहीं ‘तंत्र’ सम्पूर्ण आगम शास्त्र का द्योतक है। तांत्रिक वाङ्मय अत्यन्त विशाल है, इसके दो भाग हैं- ‘तत्व’ और ‘साधना’। जहाँ तत्व में द्वैत,अद्वैत, द्वैताद्वैत आदि का आधारभूत दार्शनिक विवेचन है, वहीं साधना में अंतरङ्ग साधना व बहिरङ्ग साधना है। बहिरङ्ग साधना में विविधता के कारण तंत्र के अनेकों प्रभाग हो गये हैं। तंत्र एक विशिष्ट व्यवस्था होते हुये भी समन्वयवादी दृष्टिकोण है। वैदिक, अर्धवेदिक यहांँ तक कि अवैदिक उपासना प्रक्रियाओं की चरम परिणति तंत्र में ही होती है। तंत्र सर्वधर्मसमभाव का आदर करने वाला तथा साधना के उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने का ओजस्वी राजपथ है। तंत्रालोक मे आचार्य अभिनवगुप्त ने कहा है →
“अंतः कौलो बहिः शिवो लोचारे तु वेदिकः सर्मदाय तिष्थेत नारिकेल फलं यथा.”
मानव जीवन में इस समृद्ध आर्षज्ञान के सदुपयोग की मुख्यतः दो विधियांँ जो प्रचलित हैं, वही ज्योतिष व तंत्र हैं।
जहांँ ज्योतिष का प्रयोग मानव जीवन व जगत के दैववशात्, कालवशात् भविष्य की घटनाओं का ठीक-ठीक ज्ञान कराना है।
वहीं तंत्रविज्ञान मानव जीवन में घटित होने वाली प्रतिकूल घटनाओं के प्रभाव को न्यून करने एवं उपाय ज्योतिष के रूप में प्रयुक्त होता है। कभी-कभी तंत्रसाधकों द्वारा ‘भविष्य ज्ञान’ कराया जाता है। जो ‘तंत्रज्योतिष’ कहलाता है।
भारतीय ज्योतिष भविष्य के संज्ञानात्मक पक्ष पर कार्य करता है, वहीं तंत्र शास्त्र ज्योतिष के पूरक रूप में उपाय व क्रियात्मक पक्ष में आता है। इसमें विविध प्रकार के लघु व दीर्घ प्रयोग किये जाते हैं। जिससे मानव जीवन के प्रतिकूल समय में न्यूनतम क्षति होती है, फलतः कल्याणप्रद विज्ञान के रूप में, यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
साथ ही भारतीय ज्योतिष की विलक्षणता एवं महत्त्व उपाय ज्योतिष के कारण ही पाश्चात्य ज्योतिष से ज्यादा है।
पाश्चात्य ज्योतिष में उपाय जैसी कोई संकल्पना या विधान नहीं है। उपाय ज्योतिष का तांत्रिक स्वरुप लोककल्याण के साथ-साथ मानव की व्यक्तिगत सामर्थ्य में भी वृद्धि करता है;जिससे विराट व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण कथन है-
“घृणा लज्जा भयं शंका, जुगुप्सा चेति पञ्चमी, जातिशीलंकुलरष्टौ पाशाः प्रकीर्तिताः, पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः।”
अर्थात् व्यक्तित्व को सीमित करने वाले पाशों से मुक्त करने से व्यक्ति शिवरूप हो जाता है। यह तंत्रशास्त्र की झलक मात्र है। वस्तुत: यह अत्यन्त विशाल व जटिल क्षेत्र है।
निष्कर्षत: ज्योतिष व तंत्र परस्पर अन्तर्सम्बन्धित हैं, दोनों का मूल उद्देश्य जीव/मानवकल्याण है, तथा दोनों एक दैवज्ञ को विशेष दक्षता देते हैं, जिससे वह जनकल्याण में सक्षम हो सके।
ज्योतिष की आधारभूत संकल्पना भाग्य व पुरुषार्थ के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध पर आर्ष ज्ञान के आलोक में विकसित हुई है। प्राय: यह पुराना विवाद रहा है,कि भाग्य व कर्म में प्रमुख कौन है ?
इस जगती के समस्त चराचर, सृष्टि के स्रष्टा सूर्य की सत्ता से जुड़े हुए हैं। प्रकाश के रूप में सूर्य से आने वाली प्राणशक्ति द्वारा ही पृथ्वी पर जीव का आविर्भाव हुआ है।